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16. कभी किसी को मुकम्मल

*आधे-अधूरे मिसरे- 16*
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*कभी किसी को मुकम्मल*
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कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
खिला हुआ ही सदा बाग़बाँ नहीं मिलता

तुम्हारे साथ से सारी बहारें आती थी,
तुम्हारे बाद अब ऐसा समाँ नहीं मिलता।

ये सब ज़माना भी हमने तमाम देखा हैं,
हमें कोई आपसा पर मेहरबाँ नहीं मिलता।

ना जाने कौन सी दुनिया में तू भी रहता हैं,
जहाँ तू दिखता हैं हरगिज़ वहाँ नहीं मिलता।

वो कहते गोल हैं दुनियाँ, सभी हैं इक जैसे,
कोई भी आपसा पर जान-ए-जाँ नहीं मिलता ।

फ़राज़ (क़लमदराज़)
S.N.Siddiqui
@seen_9807

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1 Comments

बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन

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